मैं एक बार फिर लौटा तुम पे
बेतहासा सा और थोड़ा सा बेचैन सा भी
गाड़ियों का हॉर्न जैसे आज कुछ सुनाई ना दे रहा हो
जैसे तुम्हारे सिवा कहीं कुछ दिखाई ना दे रहा हो!
सर से निकलता पसीना जब गाल के पास से गुजरा
तो एक कंपकंपी सी महसूस हुई मुझे
कुछ उसी तरह जिस तरह महसूस की थी मैंने
तुम्हारे मुझे छोड़ जाने की बात पर
कितना अजीब है ना तुम्हारे मेरे बीच
कुछ दिन बात ना होना ही एक बात बन जाता है
वो बात कब बहस बन जाती है पता ही नहीं लगता
मगर जब मान कर तुम मेरे गले लगती हो ना
तुम्हारी साँसों को जब मैं महसूस करने लगता हूँ
और तुम्हारी धड़कनें मेरी धड़कनों संग जब अठखेलियाँ करने लगती हैं
सच कहता हूँ उस लम्हे पर सौ जनम कुर्बान हैं
मैं भरसक प्रयास करता हूँ उस लम्हे को रोक लेने को
तुम्हें अपनी बाहों में समेट लेने को
मगर अपनी टूटने की आदत से मजबूर
ये सब ख्वाब फिर एक बार टूट कर सा रह जाता है
जब ये बहस चुप्पी का नाम ले कर दरमियाँ आ ख़डी होती है
और अहसास दिलाती है की मुहब्बत छूट रही है
मैं चाह रहा था की तुम इस बेचैनी में थाम लो मेरा हाथ
और कहो की लौटा दोगी मेरा सुकून
जो तुम्हारे चंद लफ़्ज़ों में फंसा हुआ है कहीं
सुकून से सुकून के बारे में सोच पाऊं
इतनी भी तो फुर्सत नहीं दी इस कम्बख्त नौकरी ने
हाँ मगर यकीन करो जितना जी में आये टटोल लो मुझे
तुम्हारे सिवा मुझमें कुछ भी मिले तो कहना मुझे
क्यूँकि मैं हूँ तो सिर्फ तुम्हारा ही
हाँ कुछ झल्ला सा, कुछ सिरफिरा सा
कुछ नादान सा थोड़ा गुस्सैल भी
मगर जैसा भी हूँ मैं हूँ तो सिर्फ तुम्हारा ही!
तुम्हारा कमल
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